उत्तराखंड के दो दिग्गज नेता जनरल बीसी खंडूड़ी और जनरल टीपीएस रावत का राजनीतिक हश्र क्या हुआ? विधायक हरबंस कपूर को भाजपाई क्यों कोसते हैं? हरदा की नौटंकियों के बावजूद उन्हें पार्टी में सम्मान क्यों नहीं मिल रहा? इंदिरा हृदयेश की जग हंसाई क्यों हो रही है? राज्य आंदोलन के सूत्रधार दिवाकर भट्ट के खिलाफ यूकेडी में ही विरोध क्यों है? भाजपा अध्यक्ष बंशीधर भगत अपनी पार्टी के जिलाध्यक्ष को भी क्यों नहीं पहचान पाते हैं? पूर्व सीएम विजय बहुगुणा को एक छोटी सी कार्यकर्ता भरे मंच से बेइज्जत कर देती है लेकिन वो फिर भी राजनीति में डटे हुए हैं।
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आम आदमी पार्टी को कांग्रेस और भाजपा बहुत हलके में ले रहे हैं। दोनों दल बहुत ही कांफिडेंट हैं कि आम आदमी पार्टी उत्तराखंड में अपना वर्चस्व नहीं बना सकती है। कारण, आप के पास न तो कोई बड़ा चेहरा है और न ही उनका अभी कैडर है। जबकि भाजपा बूथ स्तर से भी आगे पन्ना तक पहुंच चुकी है। और कांग्रेस मरे हुए शिकार पर अपना कब्जा करना चाहती है। यानी एंटी इनकम्बेंसी फैक्टर के आधार पर सत्ता के शीर्ष पर पहुंचना चाहती है। दोनों दल अब तक बारी-बारी प्रदेश पर शासन करते रहे हैं। आम आदमी पार्टी के लिए महज 12 महीने का वक्त है और उन्हें लगभग 80 लाख मतदाताओं तक अपनी बात पहुंचाने में दिक्कत है।
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वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की कल जयंती थी। राज्य गठन के बाद उनके नाम की कई योजनाएं संचालित हैं। चुनाव के समय उनके नाम पर वोट भी बटोरे जाते हैं, लेकिन सत्ता मिलते ही वीर चंद्रसिंह गढ़वाली कम्युनिस्ट बन जाते हैं। भाजपा-कांग्रेस उन्हें राष्ट्र की विरासत से कहीं अधिक वोट बैंक का जरिया मानते हैं।
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उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी तेजी से आगे निकल गयी है। प्रदेश स्तर पर अच्छा चेहरा न होने के बावजूद अच्छे लोग आम आदमी पार्टी से जुड़ रहे हैं। कल पूर्व आईएएस सुवर्धन और पूर्व आईपीएस अनंतराम चैहान ने आप ज्वाइन कर ली। पूर्व मेजर जनरल डा. सीके जखमोला पहले ही पार्टी से जुड़ चुके हैं। आप ने पौड़ी में अच्छी सेंघ लगाई है। देवप्रयाग से यूकेडी नेता गणेश भट्ट को तोड़कर आप ने यूकेडी अध्यक्ष दिवाकर भट्ट को ललकारा है। आप की यह पिछले दो-तीन महीने की उपलब्धि है।
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दो पूर्व जनरलों मेजर जनरल बीसी खंडूड़ी और ले. जनरल टीपीएस रावत ने उत्तराखंड की राजनीति में एक मुकाम हासिल किया। दोनों ही जनरल भले ही आज राजनीति में हाशिए पर हैं, लेकिन दोनों का अपना रुतबा रहा है। राजनीतिक कीचड़ में दामन झुलसा लेकिन अपनी प्रतिष्ठा बचाने में कामयाब रहे। दोनों ही जनरलों को ईमानदार माना जाता है। पहाड़ के युवाओं को रोजगार देने में जनरल टीपीएस रावत का कोई सानी नहीं है। उनको पहाड़ के युवा आज भी याद करते हैं। जनरल खंडूड़ी ने राजनीतिक शुचिता को बनाए रखा, हालांकि सारंगी ने उनकी इस छवि की पीपरी बजा दी।
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प्रदेश की जनता पर पलायन आयोग के उपाध्यक्ष एसएस नेगी पहले से भारी बोझ बने हुए हैं कि सरकार ने पांच अन्य लोगों का बोझ भी जनता पर लाद दिया है। स्वागत होना चाहिए पांचों सदस्यों का यदि वो गांव में सपरिवार बसते हैं? पर कैसे? एसएस नेगी तो अपना अस्थायी बोरिया-बिस्तर पौड़ी से लेकर देहरादून आ गये हैं। जब नेगी वहां नहीं रुके तो ये पांच सदस्य क्या वहां रुकेंगे? लाॅकडाउन में घर लौटे साढ़े तीन लाख प्रवासियों से एक लाख से अधिक मैदानों में लौट चुके हैं। जो अब भी गांव में हैं वो कोरोना के कारण मजबूरी में रुके हैं। वो भी नहीं रुकेंगे, क्योंकि सरकार ने धरातल पर कुछ किया ही नहीं।
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कल सुबह अचानक ही मूड़ हुआ कि चलो आम आदमी पार्टी के आफिस जाएं। पहुंचा, तो वहां प्रदेश प्रवक्ता रविंद्र आनंद पत्रकारवार्ता कर रहे थे। बता रहे थे कि कांग्रेस में क्या हो रहा है। हरीश रावत क्या कर रहे हैं और प्रीतम क्या? मुझे आप प्रवक्ता और उनके नेताओं की सोच पर बड़ा अफसोस हुआ और फिर जोर से हंसी आई। आम आदमी पार्टी पूरे प्रदेश भर में आज तक एक सही चेहरा नहीं ढूंढ पाई है और भाजपा की बजाए कांग्रेस को कोस रही है। वो कांग्रेस जो दम तोड़ रही है। जिसके पास न सूत है न ही कपास फिर भी उसके नेता जुलाहों की तर्ज पर जुटे हैं लट्मलट्ठा, उसे आक्सीजन दे रही है आप।
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उत्तराखंड राज्य का दुर्भाग्य है कि हमारे नए राज्य की सत्ता ऐसे नेताओं के हाथ में गई जिनकी भावना अलग राज्य के पक्ष में नहीं थी। वो अलग राज्य के विरोधी थी और राज्य बनते ही हमारे भाग्यविधाता बन गए। पिछले 20 साल में एनडी तिवारी, बीसी खंडूड़ी, हरीश रावत, विजय बहुगुणा, रमेश पोखरियाल, हरक सिंह रावत, सतपाल महाराज, इंदिरा हृदयेश समेत अधिकांश नेता ऐसे रहे हैं जो राज्य गठन से पहले भी हमारे नेता थे। जब नेता ही नहीं बदले तो राज्य का भाग्य कैसे बदलता? क्योंकि इनमें से अधिकांश नेताओं ने तो राज्य के लिए संघर्ष ही नहीं किया। जब संघर्ष, त्याग, बलिदान ही नहीं किया तो इनको नए राज्य की जनता की जनभावनाओं, आकांक्षाओं और सपनों की परवाह क्यों होगी?
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मां की आवाज सुनी, पप्पू इनै आ, तो नजरें पप्पू पर ठहर गई। गांव के रास्ते से वह हमारे आंगन में उतर आई। मां ने उसे दिवाली की कुछ मिठाइयां दी तो उसके चेहरे पर मुस्कान तैर गई। वह फिर आंगन से गांव के रास्ते की ओर जाने लगी। मैं छज्जे से उतरा और तेजी से दौड़ा, पप्पू दीदी, रुक। एक फोटू लिणै तेरी। वो दांत दिखाकर वहीं खड़ी हो गई। मैंने फोटो ली तो वो तेजी से घर के लिए मुड़ी, मैंने कहा एक बार और। कई फोटो क्लिक कर दिए। इसके बाद पप्पू चली गई। मैंने पप्पू दीदी की फोटो देखनी शुरू कर दी। हर फोटो ऐसी ही थी जैसे पोस्ट किया या है। पता नहीं चेहरे पर कैसे भाव थे? शब्द ही नहीं मिल रहे बयान करने को।
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मैं पिछले एक साल से सरकारी स्कूलों में वर्चुअल क्लासेस की खामियों को उजागर करता रहा हूं। इस कारण मुझे पुलिस केस भी झेलना पड़ा। मेरी चिन्ता तब भी यह थी कि और आज भी यही है कि सरकारी शिक्षा व्यवस्था की नीतियां केवल कागजों तक सीमित न रहें, उस पर अमल भी हो। बजट ठिकाने लगाने के लिए एक जरिया मात्र न हो। कोरोना काल चल रहा है और निश्चित तौर पर सभी वर्ग के बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हुई है लेकिन सरकारी स्कूलों के बच्चों की पढ़ाई पिछले सात माह में बुरी दशा में है। यह बात मैं नहीं असर की हाल में जारी रिपोर्ट कह रही है।
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चारधाम यात्रा मार्ग के लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 25,300 पेड़ों के कटान की अनुमति दी थी। आलम यह है आलवेदर रोड के निर्माण के दौरान मलबे का निस्तारण सही नहीं होने से ही हजारों पेड़ मलबे में दब गए। इसका कोई रिकार्ड नहीं है। मलबा अलकनंदा, मंदाकिनी और अन्य नदियों में गिर रहा है। यदि केदारनाथ जैसी आपदा दोबारा आई तो इस बार हरिद्वार का हश्र रामबाड़ा की तर्ज पर होगा। हमारे यहां पदमश्री और पदमभूषण पुरस्कार लेने वाले अनिल जोशी और मैती आंदोलन के पदमश्री कल्याण रावत की चुप्पी इस मामले में खलती है। ये दोनों तब भी चुप रहे जब पिछले छह महीने से तोता घाटी को बमों से उड़ाया जा रहा था। ये आज भी चुप हैं जब थानों में दस हजार पेड़ों की बलि देने की तैयारी हो रही है।
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केंद्र सरकार का आत्मनिर्भर भारत अभियान यानी पूरे देश का निजीकरण करने की प्रक्रिया तेजी से चल रही है। खनन मंत्रालय ने खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1957 या एमएमडीआर एक्ट में नौ बड़े फेरबदल प्रस्तावित करते हुए भारतीय खनन में बड़े स्तर पर निजीकरण की प्रक्रिया को शुरू कर दी है। सरकार का दावा है कि इन प्रस्तावित बदलावों से खनन में बड़ी तदाद में रोजगार पैदा किया जा सकेगा और देश की अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी।
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