-वीर विनोद छाबड़ा
ग़रीब और बेरोज़गार मज़दूर-सा दिखता हुआ या बच्चों द्वारा ठुकराया दर-दर भटकता हुआ आदमी…रोता हुआ और जिसके मुंह से शब्द बाद में फूटे, आंखों से आंसू पहले टपके। फ़िल्मी दुनिया के पचास से सत्तर के सालों में ऐसे किरदार के लिए सबसे पहली पसंद होते थे-नज़ीर हुसैन। वो ऐसे किरदारों को इतने परफेक्शन के साथ करते थे कि मुर्दा किरदार जीवंत हो उठते थे। इसीलिए उन्हें ‘आंसूओं का कनस्तर’ भी कहा जाता था।
नज़ीर हुसैन की सिनेमा में आने की दास्तान बहुत दिलचस्प है। गाज़ीपुर के रहने वाले मगर व्यवहार में खांटी किस्म का। उनके पिता शाहबज़ाद हुसैन रेलवे में गार्ड थे। नज़ीर की पढ़ाई लखनऊ में पूरी हुई। फिर नौकरी की तलाश शुरू हुई। दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था। सेना में भर्ती चल रही थी। ऊंचे कद के हष्ट-पुष्ट डील-डौल के नज़ीर भी लाइन में लग लिए...
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