- क्या पलायन आयोग के पांच सदस्य बसाएंगे पहाड़?
- क्या गांव के लोगों को अच्छा जीवन जीने का अधिकार नहीं?
प्रदेश की जनता पर पलायन आयोग के उपाध्यक्ष एसएस नेगी पहले से भारी बोझ बने हुए हैं कि सरकार ने पांच अन्य लोगों का बोझ भी जनता पर लाद दिया है। स्वागत होना चाहिए पांचों सदस्यों का यदि वो गांव में सपरिवार बसते हैं? पर कैसे? एसएस नेगी तो अपना अस्थायी बोरिया-बिस्तर पौड़ी से लेकर देहरादून आ गये हैं। जब नेगी वहां नहीं रुके तो ये पांच सदस्य क्या वहां रुकेंगे? लाॅकडाउन में घर लौटे साढ़े तीन लाख प्रवासियों से एक लाख से अधिक मैदानों में लौट चुके हैं। जो अब भी गांव में हैं वो कोरोना के कारण मजबूरी में रुके हैं। वो भी नहीं रुकेंगे, क्योंकि सरकार ने धरातल पर कुछ किया ही नहीं।
थोड़ा पीछे ले चलता हूं। लगभग एक साल पहले मैं त्रिवेंद्र चचा के खैरासैंण स्थित घर पर पहुंचा। त्रिवेंद्र चचा आठ भाई हैं और त्रिवेंद्र सबसे छोटे। त्रिवेंद्र चचा के दो मकान हैं। इनमें एक में उनकी विधवा भाभी रहती है तो दूसरे में दूसरा भाई और उनकी पत्नी। त्रिवेंद्र चचा की विधवा भाभी जी मेरे लिए चाय बनाने रसोई में चली गई। मैं उनकी नीमदरी यानी छज्जे में गया और वहां बैठ गया। इस बीच मुझे मधुमक्खियों ने काट लिया। मैं चिल्लाया तो चचा की भाभी ने कहा, अरे उधर मत बैठो, उस दरवाजे पर मधुमक्खियों ने छत्ता बना लिया है। यानी उस मकान का एक दरवाजा कई महीनों से खुला ही नहीं कि मधुमक्खियों ने छत्ता भी बना दिया। आप इसे सीएम द्वारा घर में मौन पालन के तौर पर रोजगार भी ले सकते हैं और यह भी कि हमारे सीएम पलायन रोकने के लिए कितना गंभीर हैं? उनकी भाभी ने बताया कि सीएम बनने के बाद वो महज दो बार गांव पहुंचे हैं।
इसके बाद मैं पिनानी गांव जा पहुंचा। राठ यानी पिछड़ा इलाका। केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक का गांव। रमेश पोखरियाल का पुश्तैनी परम्परागत घर दो कमरा का है और इसमें वो तीन भाई पले-बढ़े। मैदानों में करोड़ों में व्यारे-न्यारे करने वाले निशंक ने अब इस पुश्तैनी घर के पास ही दो मंजिला सीमेंटिड घर बना लिया है। मजे की बात यह है कि इस नये घर में भी कोई नहीं रहता। ग्रामीणों का कहना है कि निशंक 2011 में गांव के मठ में पूजा करने आये थे। मठ गांव से एक किलोमीटर दूर है और वहीं से वापस लौट गये तो आज तक नहीं लौटे। जनरल खंडूड़ी ने भी अपने मूल गांव मरगदना का नाम बदलने के अलावा कोई काम नहीं किया। विजय बहुगुणा के गांव बुधाणी में आठ परिवार ही रह गये हैं।
मेरा सवाल अपने नेताओं से यह है कि भाई लोगो, तुम सत्ता की मलाई खा रहे हो, और पहाड़ के लोग कोदा की सूखी रोटी। ऐसा क्यों? तुम चाहते हो कि पहाड़ में विकास न होने के बावजूद वो अपने गांव में बैठकर ही जीवन गुजार दे और मौत के बाद उनको डुट्याल घाट तक ले जाएं, यह कहां का इंसाफ है? क्या गांव के व्यक्ति को रहन-सहन अच्छा करने, अच्छी शिक्षा, अच्छा स्वास्थ्य सुविधाएं और चमक-दमक वाली जिंदगी जीने का अधिकार नहीं है? जब तुम गांव से नाता तोड़ वातानुकूलित कमरों में बैठते हो, सोते हो और पखाना करते हो तो गांव के आदमी को इतना भी हक नहीं कि वो मैदान में जाकर जीवन यापन कर सके? वह भी चाहता है कि उसकी गर्भवती पत्नी को आटो रिक्शा से ही सही, अस्पताल तक जाने का अधिकार मिले, बच्चे को अच्छी शिक्षा मिले और उसके जीवन स्तर में सुधार आएं।
जब तक तुम थोड़ी सी ईमानदारी से पहाड़ के हित में काम नहीं करोगे? पहाड़ में रहने वाले लोगों को दोयम दर्जे का नागरिक समझोगे और विकास की प्राथमिकता शहरों तक रखोगे तो उन्हें गांव में रोकने का अधिकार तो दूर की बात, उनके पलायन पर घड़याली आंसू बहाने का नेताओं को कोई अधिकार नहीं। जब त्रिवेंद्र चचा पलायन आयोग उपाध्यक्ष नेगी के पलायन को नहीं रोक सके तो अब उन्हें इन पांच सदस्यों का बोझ जनता पर थोपने का अधिकार नहीं है।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]
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