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राजनीति में तय हो नेताओं की रिटायरमेंट की उम्र

एफ.आई.आर. लाइव डेस्क Updated on Sunday, January 10, 2021 00:39 AM IST
राजनीति में तय हो नेताओं की रिटायरमेंट की उम्र

- दलों और जनता पर बोझ बन जाते हैं ये बुजुर्ग नेता
- सम्मानजनक तरीके से नेता लें विदाई, न हो फजीहत
उत्तराखंड के दो दिग्गज नेता जनरल बीसी खंडूड़ी और जनरल टीपीएस रावत का राजनीतिक हश्र क्या हुआ? विधायक हरबंस कपूर को भाजपाई क्यों कोसते हैं? हरदा की नौटंकियों के बावजूद उन्हें पार्टी में सम्मान क्यों नहीं मिल रहा? इंदिरा हृदयेश की जग हंसाई क्यों हो रही है? राज्य आंदोलन के सूत्रधार दिवाकर भट्ट के खिलाफ यूकेडी में ही विरोध क्यों है? भाजपा अध्यक्ष बंशीधर भगत अपनी पार्टी के जिलाध्यक्ष को भी क्यों नहीं पहचान पाते हैं? पूर्व सीएम विजय बहुगुणा को एक छोटी सी कार्यकर्ता भरे मंच से बेइज्जत कर देती है लेकिन वो फिर भी राजनीति में डटे हुए हैं।

यदि हम गंभीरता से आकलन करें तो इस सबका कारण है इन नेताओं की उम्र। भारत के महान बल्लेबाज धोनी को एहसास हो गया था कि अब क्रिकेट में बने रहना उनके लिए संभव नहीं है तो उन्होंने संन्यास ले लिया। लेकिन एक भी नेता ऐसा नहीं है कि जिसने राजनीति से संन्यास लिया हो। राज्यपाल बनने को राजनीतिक रिटायरमेंट कहा जाता है लेकिन कई उदाहरण हैं कि राज्यपाल बनने के बावजूद नेता फिर सक्रिय राजनीति में आ गये।

उत्तराखंड के सभी पार्टियों के बुजुर्ग नेता जनता और दूसरी पीढ़ी के नेताओं की गले की फांस बने हुए हैं। हरदा, हरबंस, दिवाकर, इंदिरा कोई भी रिटायर नहीं होना चाहता है न ही दूसरे को आगे बढ़ने देना चाहता है। ये नेता सोचते हैं कि जनता उनकी जागीर है। यदि वो नहीं तो उनके बच्चों को ये राजनीतिक विरासत मिलनी चाहिए। बस, यही सोच कर रिटायर नहीं हो रहे। जनरल टीपीएस रावत इस राजनीतिक विरासत के अपवाद हैं। वो अपने किसी भी रिश्तेदार को राजनीति में लेकर नहीं आये। बाकी सब अपने बच्चों या परिजनों को राजनीति में स्थापित करने में जुटे हुए हैं। हालांकि ये घाध नेता जानते हैं कि इनके बच्चे जब राजनीति में 40-50 साल की उम्र में भी स्थापित नहीं हो सके तो अब क्या होंगे? लेकिन सब जुटे हुए हैं।

अब समय आ गया है कि जनता को जागरूक होना चाहिए। यह लोकतंत्र है किसी की जागीर नहीं। इन नेताओं को राजनीति से रिटायर होना ही होगा; यदि उम्र तय नहीं होती तो जनता को तय करना होगा कि 70 प्लस किसी भी नेता को चुनाव न जीतने दिया जाए। इसके बाद ही राजनीतिक दल मजबूर होंगे कि वो बुजुर्गों को सलाहकार या राज्यपाल के रूप में ही स्थापित करें।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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