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मधुदीप की लघुकथाः नमिता सिंह

एफ.आई.आर. लाइव डेस्क Updated on Thursday, July 01, 2021 22:36 PM IST
मधुदीप की लघुकथाः नमिता सिंह

हँसता हुआ नूरानी चेहरा, काली जुल्फें रंग सुनहरा...जी हाँ! आप नमिता सिंह के बारे में बेशक यह जुमला उछाल सकते हैं मगर उसके व्यक्तित्व को किसी भी सीमा में बाँधने से पहले उसके जीवन में एक ही दिन में घटी इन तीन घटनाओं पर अवश्य ही गौर कर लें।
यह पिछले सप्ताह की बात है। नमिता सिंह कार्यालय जाने के लिए रिक्शे में बैठकर मैट्रो की तरफ जा रही थी। सरे-राह एक मनचले ने अपनी बाइक रिक्शे के आगे अड़ा दी।
’’रिक्शे को छोड़कर मेरी बाइक पर आ जाओे, फुर्र-से दफ्तर पहुँचा दूँगा।’’
उम्मीद के विपरीत वह कूदकर रिक्शा से उतरी और बाइक के आगे जा खड़ी हुई।
’’पेट्रोल है बाइक में...?
सुनकर युवक हक्का-बक्का रह गया और इसके बाद जो झन्नाटेदार झापड़ उसके गाल पर पड़ा कि दिन में ही उसकी आँखों के सामने तारे नाच उठे।
कार्यालय में पहुँचकर नमिता सिंह ने अपना कम्प्यूटर ऑन किया तो कुछ मैसेज उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उसने इधर-उधर देखा, पूरा कार्यालय व्यस्त था। हाँ, मिस्टर चक्रधर की निगाहें उसकी मेज की तरफ उठी हुई थीं।
’’हैलो मिस्टर चक्रधर! कैसे हैं आप?’’ उसकी सीट पर पहुँचकर नमिता सिंह ने कहा तो चक्रधर की मुस्कान चौड़ी हो गई।
’’तो आप मुझे ’प्रपोज’ करना चाहते हैं?’’ उसने अपनी आँखें उसकी आँखों में डाल दीं।
’’आप इजाजत दें तो।’’ चक्रधर ने कहा तो अवश्य लेकिन वह उसकी आँखों की चुभन अपनी आँखों में महसूस कर रहा था।
’’भाभीजी को तलाक दोगे या फिर धर्म-परिवर्तन का इरादा रखते हो?’’
’’क्या...!’’ बस एक शब्द।
’’मिस्टर चक्रधर! यह कार्यालय है, होश में रहा करो। आपके सारे मैसेज मेरे कम्प्यूटर में सुरक्षित हैं।’’ इससे पहले कि दूसरी मेजों की निगाहें उस तरफ उठें, वह अपनी सीट पर जा चुकी थी।
शाम को घर के ड्राइंगरूम में गहमागहमी थी। चन्द्रशेखर अपने माता-पिता के साथ नमिता सिंह को देखने आया हुआ था। चाय पी जा चुकी थी। हाँ, हूँ...सब-कुछ लगभग तय हो चुका था। शगुन लेने-देने की तैयारी चल रही थी कि तभी नमिता सिंह की आवाज पर सब-कुछ ठहर गया।
’’चन्द्रशेखरजी, मैं नहीं जानती कि मेरे माता-पिता और आपके माता-पिता के मध्य क्या बात हुई है मगर इस विवाह के लिए मेरी एक शर्त है।’’ नमिता सिंह ने कहा तो सभी की निगाहों में एक प्रश्न आ गया।
’’हमारा विवाह आर्य समाज मन्दिर में होगा और बिना किसी दान-दहेज के होगा। हाँ, एक बार और...’’
सभी निगाहें उत्सुकता में उठी रहीं।
’’आप और मैं दोनों ही अपने माता-पिता की इकलौती सन्तान हैं। स्वाभाविक है, आप अपने माता-पिता का पूरा दायित्व वहन करेंगे। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है। हाँ, मैं इतना अवश्य चाहूँगी कि आप मुझे भी मेरे माता-पिता का दायित्व वहन करने की स्वीकृति देंगे।’’
नमिता सिंह के कहने के साथ ही अब वे निगाहें बाहर जाने के दरवाजे पर अटक गई थीं।
अब आप चाहें तो नमिता सिंह पर यह जुमला बेशक उछाल सकते हैं-हँसता हुआ नूरानी चेहरा, काली जुल्फें रंग सुनहरा...।

मधुदीप


(मेरी चुनिन्दा लघुकथाएँ से साभार)
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